ज्ञानेन्द्रपति
की कविता
'नदी
और साबुन' का
शेष अंश
एक
नीली साबुन-बट्टी
वह
एक बहुराष्ट्रीय कंपनी का
बहुप्रचलित
साबुन है।
दुखियारी
महतारी हे गंगाट
उसका
जी काँपता है डर से
उसकी
प्रतिद्वन्द्वी हथेली-भर
की वह
जो
साबुन की टिकिया है
इजारेदार
पूँजीवाद की बिटिया है
उसका
महाबली झाग उठने से पहले
गंगा
के दिल में हौल उठता है।
(महतारीः
माँ, महाबलीः
अत्यंत शक्तिशाली,
बट्टीः
छोटी गोल लोटिया-टिकिया,
इजारेदारः
ठेकेदार,
हौलः
डर, भय)
प्रस्तुतिः
रवि,
चिराग