मान
लें कि मानव के अनियंत्रित
हस्तक्षेप से प्रदूषित
और
नाशोन्मुख नदी किनारे के एक
पेड़ से अपनी व्यथा
सुनाती
है। वह संभावित वार्तालाप
तैयार करें।
नदी-पेड़:
वार्तालाप
पेड़:
इतनी
दुखी क्यों हैं?
नदी:
क्या
बताऊँ,
मेरी
हालत देखिए न कितनी
शोचनीय
है।
पेड़:
क्या-क्या
कठिनाइयाँ हो रही हैं?
नदी:
मेरा
जल देखो,
इसे
इतना प्रदूषित बना दिया
है
कि उपयोग करना असंभव बन गया
है।
पेड़:
ऐसा
क्यों हो रहा है इसके पीछे
किसके हाथ हैं?
नदी:
मैं
सभी पशु-पक्षियों,
मानव,
पेड़-पौधे
आदि
सबकी
सेवा करना चाहती हूँ। लेकिन
मुझे तो
बदले
में पीड़ा ही मिलती है।
पेड़:
आपको
सबसे ज़्यादा पीड़ा और तायनाएँ
किसकी
ओर से हो रही हैं?
नदी:
इस
जगत में सबसे बुद्धिमान तो
मानव माने जाते
हैं।
लेकिन वही मानव मेरी इस हालत
का
मुख्य
कारण है।
पेड़:
मानव
कैसे आपको प्रदूषित और अनुपयोगी
बना
देता है?
नदी:
मानव
अपनी सुख-सुविधाएँ
बढ़ाने के लिए जो
नए-नए
आविष्कार करते हैं वे सब मेरे
लिए
अत्यंत
दोषकारी बन जाते हैं। प्लास्टिक
जैसे
सारे
कूड़े-कचड़े
मेरे ऊपर फेंक दिए जाते हैं।
पेड़:
ये
सारे कारखाने आदि अपके किनारों
पर ही
स्थित
हैं न?
नदी:
ज़रूर।
वहाँ से निकलते मालिन्य,
विषैले
जल
आदि
अत्यंत मारक हैं। उसके बारे
में सोचते ही
मुझे
डर होता है।
पेड़:
आपका
जल के उपयोग से मानव खेती करता
है।
बदले
में उसका व्यवहार कैसा है?
नदी:
वह
भी निर्दय है। जनसंख्या वृद्धि
के साथ ज़्यादा
अनाज
पैदा करना आवश्यक बन गया। तब
अंधाधुंध
कीटनाशी दवाइयों का प्रयोग
शुरू
किया
गया है। वह भी मेरे
जल से ही मिल
जाती
हैं।
पेड़:
अच्छा
ये सब कैसे बदलेगा?
नदी:
हमारे
चिंता और विचार से मात्र इसका
समाधान
नहीं
होगा। मानव ही इसका समाधान
कर सकता है।
पेड़:
हम
प्रार्थना करें कि इस मानव
को ऊपरवाला
अच्छी
बुद्धि दें।