24 Jun 2012

No. 64 नदी और साबुन


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'नदी और साबुन' पर आस्वादन टिप्पणी
        नदी और साबुन समकालीन हिंदी कविता के प्रमुख
हस्ताक्षर ज्ञानेन्द्रपति की एक प्रसिद्ध कविता है। इस कविता
के द्वारा कवि सामाजिक समस्याओं के प्रति अपनी सतर्कता
और प्रतिबद्धता व्यक्त करते हैं।
      'नदी और साबुन' की सहायता से कवि हमारा ध्यान
प्रकृति के प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित
दोहन की ओर आकर्षित करते हैं। नदी को दुबली और
मैली-कुचैली देखकर कवि चिंतित होते हैं। क्योंकि यह
नदीं ऐसी नहीं थी। बहता पानी प्रायः निर्मल होता है।
लेकिन यहाँ नदी का रंग बैंगनी हो गया है। कल-कल करके
बहती हुई सभी की सेवा करनेवाली नदी को ऐसी हालत में
किसने डाला है? विभिन्न पशु-पक्षी नदी के पानी का
इस्तेमाल करते हैं। लेकिन उनसे नदी का जल कम या
प्रदूषित नहीं होता। लेकिन सिर्फ मानव के अनियंत्रित
हस्तक्षेप से इतनी शोषित और प्रदूषित हो गई है।
मानव ने अपनी सुख-सुविधाएँ बढ़ाने के लिए जो कारखाने
बनाए गए हैं उनका तेज़ाबी पेशाब याने विषैला जल नदी
को अत्यधिक प्रदूषित करता है।
        भारत की ज्यादातर नदियों का उद्भव हिमालय से
होता है। कवि हिमालय को एक प्रहरी या संरक्षक के रूप में
मानते हैं। इतने ताकतवर प्रहरी के होते हुए भी नदी एक
छोटी सी साबुन की टिकिया के सामने हार मानती है।
साबुन की टिकिया औद्योगिक पूँजीवाद की बिटिया है।
साबुन का इस्तेमाल पानी के जीवनपोषक गुणों का अंत
करता है। पशु-पक्षी नदी का इस्तेमाल कभी भी नकारात्मक
ढंग से नहीं करते। लेकिन मानव अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए
नदी का सत्यानाश करता है। कवि ने नदी को सबकुछ
चुपचाप सहनेवाली एक शोषित के रूप में प्रस्तुत किया है।
भविष्य के बारे में न सोचकर प्रकृति पर जो हमले हो
रहे हैं, अत्यधिक हानिकारक हैं। मानव के अनियंत्रित हस्तक्षेप
से विश्व भर में नदियों की हालत बिगड़ती जा रही है।
जल और प्रकृति के प्रदूषण और अनियंत्रित दोहन पर चर्चा
करनेवाली यह कविता बिलकुल प्रासंगिक है।
                                                             रवि. एम.

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